🔴 न कहीं झूला और न ही कहीं कजरी के बोल पड रहे है ही सुनाई
🔵 संजय चाणक्य
कुशीनगर । एक दौर था जब सावन के शुरू होते ही बारिश की फुहारों संग पेड़ों पर झूले व कजरी का मिठास पूरे वातावरण में घुल जाया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। सावन बीतने को है, लेकिन न कहीं झूला और न ही कहीं कजरी के बोल ही सुनाई पड़ रहे हैं। ऐसे मे कहना मुनासिब है कि सावन के झूले व कजरी गीत विलुप्त होती जा रही हैं।
बेशक! आधुनिकता की चकाचौंध में प्राचीन परंपराएं गुम होती जा रही हैं। ऐसी ही एक परंपरा सावन में झूला झूलने व कजरी गाने की थी।लेकिन अब बगीचों में पेड़ों पर झूले नहीं लगते। बहन-बेटियां अब झूलों पर पटेंग नहीं मारतीं। हालांकि बुजुर्गों को वह पुराना दिन काफी याद आता है जब सावन का महीना शुरू होते ही पेड़ों पर झूले दिखाई देने लगते थे। नवविवाहिताएं सावन शुरू होते ही अपने हाथों में मेहंदी रचाकर पीहर आ जाती थीं। मोहल्लों में एक पेड़ ऐसा चुना जाता था, जहां दिन में गांव की सभी बहू, बेटियां, बच्चे पटेंग मारते थे। रात में मोहल्ले भर की बहन बेटियां और महिलाएं एकत्रित होकर सावन के गीत गाते हुए झूला झूलतीं और श्रावणी गीतों का आनंद लेती हुई एक दूसरे से हंसी ठिठोली करती नजर आती थीं। धीरे-धीरे समय परिवर्तन के साथ ही सावन के झूले और कजरी गीत विलुप्त हो चुके हैँ।
🔴झूले व कजरी की कहानी बुजुर्गों के मुह जुबनी
पडरौना नगर की अस्सी वर्षीय दुलारी देवी अपनी यादो को साझा करती हुई कहती है तकरीबन तीस साल पहले सावन महीना में युवतियां का बागों में जाकर आम के पेड़ों पर झूला झूलना, बारिश के बहते पानी बच्चों द्वारा कागज की नाव बना कर चलाना जैसी खुशियां अब नहीं दिखाई देती। पहले गांव की लड़कियां सावन का इंतजार करती थीं। भोजपुरी में बात करते हुए कहा कि सावन के आवते हर घर में झूला डाल के नया नया कनिया संगे गांव के लईकी सब झूला झूलत कजरी के गीत सब गावत गावत रहली ,जवन बड़ा निक लागत रहे। कजरी में पिया मेंहदी मंगा द मोती झील से, जाई के साइकिल से ना, पिया मेंहदी मंगा द, छोटकी ननदी से पिसा द, हमरा हथवा पर चढ़ा द, कांटा कील से, हरि हरि बाबा के दुवरिया मोरवा बोले ए हरि आदि काफी प्रचलित रही। उन्होंने कहा कि नई नवेली दुल्हन और गांव की लड़कियां कजरी गीत गाकर हास्य परिहास के साथ मनोरंजन किया करती थी। नाहर छपरा गांव की सावित्री देवी व ज्ञानवंती देवी कहती है कि पहले खेतों में सोहनी के समय महिला मजदूर भी कजरी गीत गाकर सावन का जश्न मनाती थीं। लेकिन आज झूला और कजरी बीते जमाने की बात हो गई है। ननंद भौजाई का रिश्ता नदी के दो पाटों की तरह हो गए हैं। मुन्नी पाण्डेय ने बताया कि पहले प्रेम घर में ही नहीं आस पड़ोस में भी था। टोला भर की लड़कियां एक जगह इकट्ठा होकर कजरी गायन करती थीं। लेकिन आज प्रेम का अभाव साफ दिखता है।
🔴बहुमंजिला इमारतों ने आंगन के अस्तित्व को कर दिया खत्म
समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के निर्माण से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त होने को है। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर परंपरा से गायब होते जा रहे हैं। प्रकृति के संग जीने की परंपरा थमती जा रही है। सावन में बगीचों में झूले की जगह अब घर की छत, लान में ही रेडीमेड फ्रेम वाले झूले, लोहे और बांस के झूलों ने ले लिया है।
🔴कम होते जा रहा है बुजुर्गों का छत्रछाया
पूर्व में संयुक्त परिवार हुआ करता था। समूचे परिवार में बुजुर्गों की छत्रछाया और उनके सानिध्य में सभी पारिवारिक सदस्य एक दूसरे से जुड़े रहते थे, लेकिन अब एकल होते परिवार और गांवों में फैल रही वैमनस्यता ने आपसी स्नेह को समाप्त कर झूला झूलने के रिवाज को ही खत्म कर दिया है। अब न तो पहले जैसे बाग बगीचे रहे न मोर, पपीहे और कोयल की मधुर बोली ही सुनने को मिलती है।
🔴 न रहे कलाकार, न रहे कद्रदान
लोकगीत गायक सत्तर वर्षीय सुदामा कहते है कि अब न तो कजरी के कलाकार रहे और न ही कद्रदान। जैसे जैसे पुरानी पीढ़ी खत्म होती जा रही कजरी भी दम तोड़ती जा रही है। अब न कोई सिखने वाला है और न ही सीखने वाला। नये लोग इसे हीन भावना से देखते हैं और इसे सीखने का प्रयास भी नहीं करते। गजरी गीत को बचाने की नितांत आवश्यकता है अन्यथा आने वाले समय में इसके बारे में बताने वाला कोई नहीं मिलेगा। उन्होने कहा कजरी लोकगीतों की धरोहर है। कुछ वर्षों तक कजरी गाने वाले कलाकार जिले में मौजूद थे, लेकिन अब इनकी संख्या भी नही के बराबर रह गई है। सरकार को लोक कलाओं के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए, जिससे लोक संस्कृति और परंपराएं जीवित रह सकें।
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